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39 questions
शुद्ध भक्ति करने पर जीवात्मा को क्या अनुभूति होती है ?
शुद्ध भक्ति करने से भक्त को इस तथ्य की अनुभूति होने लगती है की ईश्वर महान है और जीवात्मा उनके अधीन है
शुद्ध भक्ति करने से भक्त को यह अनुभूति होती है की जीव का कर्तव्य है भगवान की सेवा करना और यदि जीव भगवान की सेवा ना करे तो उसे माया की सेवा करनी पड़ेगी
उपरोक्त में से कोई नहीं
उपरोक्त दोनो
शुद्ध भक्ति के क्या लक्षण हैं ?
शुद्ध भक्ति ज्ञान और कर्म से आवृत होती है
शुद्ध भक्ति अहेतुकी और अप्रतिहता होती है
शुद्ध भक्ति केवल शुद्ध भक्त कर सकता है
उपरोक्त सभी
कब संसार में कर्म करने से भक्ति कर्म से आवृत हो जाती है ?
कोई भी कर्म करने से भक्ति कर्म से आवृत हो जाती है, इसलिए कर्म करने से बचना चाहिए
कर्म से भक्ति आवृत नहीं होती, इसलिए संसार में निरंतर कर्म करते रहना चाहिए
अगर कर्म कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए नहीं किया जाए तो कर्म भक्ति को आवृत कर लेगा, चाहे कर्म भक्ति से सम्बंधित ही क्यों ना हो
केवल भक्ति से सम्बंधित कर्म करने चाहिए, क्यूँकि ऐसे कर्म कर्ता की भक्ति को कभी आवृत नहीं करते
निम्नलिखित में से कौन से भागवत गीत के श्लोक में कृष्ण बताते हैं की अष्टांग योगी भी उन्हें प्राप्त कर सकते हैं किंतु उन्हें भी शरीर त्यागते समय ध्यान योग के बल पर भक्ति भाव में परम पुरुष का ध्यान लगाना पड़ेगा ?
7.14
6.45
8.10
14.6
कौन से पुराण में यह वर्णन मिलता है की " वैकुंठ में आत्मा को ले आने के लिए भक्त को अष्टांग योग को साधने की आवश्यकता नहीं है, क्यूँकि इसका भार स्वयं कृष्ण अपने ऊपर ले लेते हैं" ?
वराह पुराण
नरसिंह पुराण
श्रीमद् भागवत पुराण
पदम पुराण
भगवत गीता की श्लोक संख्या 12.8 में कृष्ण कहते हैं की कृष्ण में चित स्थिर करके और सारी बुद्धि कृष्ण में स्थिर करके व्यक्ति सदैव कृष्ण में निवास करेगा ।यहाँ “कृष्ण में निवास करने” का अर्थ क्या है ?
इस प्रकार कार्य करके व्यक्ति शरीर छोड़ने के उपरांत कृष्ण में लीन हो जाएगा
इस प्रकार कार्य करने से भक्त सदैव कृष्ण चेतना में रहेगा
इस प्रकार कार्य करने से भक्त घर छोड़ कर वृंदावन में निवास करने लगेगा
उपरोक्त सभी
जो साधक अपने मन और बुद्धि को कृष्ण में स्थिर ना कर पाएँ उनको कृष्ण क्या उपदेश करते हैं ?
भक्ति के विधि विधानों का पालन करो और कृष्ण को प्राप्त करने की चाह उत्पन्न करो
संसार को त्याग दो और सन्यास लो
निरंतर कृष्ण की भक्ति में लीन रहो
देवताओं की शरण में जाओ क्यूँकि सभी रास्ते एक ही जगह पहुँचते हैं
इस संसार में सब लोगों का अलग अलग स्वभाव है और उसके अनुसार अपनी अपनी रुचि है , फिर कृष्ण का यह उपदेश की सभी को कृष्ण को प्राप्त करने की चाह (माम इच्छा आपतुम,श्लोक संख्या 10.9) उत्पन्न करनी चाहिए, क्या अव्यवहारिक और मूल स्वभाव के विपरीत नहीं है ?
हाँ, क्यूँकि ज़बरदस्ती किया गया कार्य कभी लम्बे समय तक नहीं टिकता
नहीं, क्यूँकि कृष्ण के प्रति आकर्षण तो प्रत्येक जीवात्मा का मूल स्वभाव है क्यूँकि जीवात्मा कृष्ण का ही नित्य अंश है
वैष्णवों के लिए कृष्ण के प्रति आकर्षण का उपदेश ठीक है, किंतु अन्य अध्यात्मवादियों के लिए यह उपदेश उचित नहीं है
हाँ, क्यूँकि सभी को यह आकर्षण को प्राप्त करके निराकार में लीन होना है
अगर यह बात मान ली जाए की प्रत्येक जीवात्मा का कृष्ण के प्रति मूलतः स्वाभाविक आकर्षण है तो आज के संसार में यह बहुत काम लोगों में ही क्यों दिखाई पड़ता है ?
क्यूँकि इस भौतिक संसार में कृष्ण के प्रति जीव का स्वाभाविक प्रेम, काम (इंद्रिय तृप्ति की इच्छा) में परिवर्तित हो गया है
क्यूँकि कृष्ण में कोई आकर्षण नहीं है
क्यूँकि आज का संसार विज्ञान में प्रगति कर चुका है और किसी की अंध भक्ति करता है
2 और 3
भक्ति के विधि विधानों को साधक कहाँ से सीख सकता है ?
गुरु
साधु
शास्त्र
उपरोक्त सभी
भगवत गीता के श्लोक संख्या 12.10 में कृष्ण अर्जुन को उपदेश करते हैं की अगर कोई भक्ति के नियमों का पालन ना कर सके तो कृष्ण के लिए कर्म करने का प्रयास करे। क्या इसका अर्थ हुआ की जो व्यक्ति 16 माला और चार नियमों का पालन कर रहा है उसे कृष्ण के लिए कार्य करने की आवश्यकता नहीं है ?
कृष्ण के लिए कार्य वो करें जो भक्ति के नियमों का पालन नहीं कर रहे हैं, भक्ति के नियमों का पालन करने वालों को सारी ऊर्जा नियमों का पालन करने में लगानी चाहिए
भक्ति के नियमों के साथ कृष्ण के लिए कार्य करने की भी आवश्यकता है क्यूँकि ऐसे कार्य करने से चित स्वाभाविक रूप से भक्ति में लगता है
साधक कृष्ण के लिए कार्य करे किंतु साथ में ऐसे नियम जिन से कृष्ण के लिए आकर्षण बढ़े (साधना ) उन्हें भी नियमित रूप से करे
2 और 3
कृष्ण के लिए कार्य करने कि क्या अर्थ है ?
देशभक्ति के लिए कार्य करना
परोपकार यथा ग़रीबों को भोजन , बीमार लोगों की सेवा आदि
कृष्ण की भक्ति का समाज में प्रचार
कर्म करना किंतु फल की इच्छा ना करना
जो लोग कृष्ण के लिए कार्य करने में भी असमर्थ हैं उन्हें कृष्ण क्या करने की सलाह देते हैं ?
ज्ञान का अनुशीलन
समस्त कर्म फलों का त्याग
आत्म स्थित होने का प्रयत्न
2 और 3
अपने कर्म फल के त्याग से मनुष्य किस प्रकार व्यक्ति कृष्ण भक्ति के स्तर तक उठ जाता है ?
क्यूँकि कर्म फल के त्याग से कृष्ण प्रसन्न होते हैं और कृष्ण भक्ति का दान देते हैं
क्यूँकि यही गीता का सार है , कर्म करो और फल की इच्छा ना करो
क्यूँकि कारण फल के त्याग से मनुष्य का मन क्रमशः शुद्ध होता है और शुद्ध मन से व्यक्ति कृष्ण को समझने की स्तिथि में आने लगता है
क्यूँकि कर्म फल के त्याग से मनुष्य कर्मयोगी बन जाता है और सारे गुण उस में प्रकट हो जाते हैं
भगवत गीता के उपदेश के अनुसार निम्नलिखित में से सर्वाधिक ऊँची स्तिथि कौन सी है ?
कर्म फल का त्याग
परोपकार करना यथा समुदाय सेवा , राष्ट्रीय सेवा , समाज सेवा आदि
कृष्ण के लिए कार्य करने का प्रयास करना
कृष्ण की अनन्य भक्ति में अपनी बुद्धि और मन को लगना
श्लोक 12.08 में, कृष्ण कहते हैं कि अपनी बुद्धि मुझमें लगाओ, क्या कृष्ण चाहते हैं कि हम अपने भौतिक कर्तव्य को छोड़ कर सन्यास स्वीकार करें और उन्हें समझें?
हाँ, एक पूर्णकालिक सन्यासी बनें और एक आश्रम में शामिल हों।मानव जीवन भौतिक जिम्मेदारियों में समय बर्बाद करने के लिए नहीं है
कृष्ण हमें दिन के दौरान एक पारिवारिक व्यक्ति और रात के दौरान और सप्ताहांत में एक संन्यासी बनने के लिए कहते हैं
कृष्ण हमें अपने मन और बुद्धि को उन्हें समझने में लगाने के लिए कह रहे हैं और साथ ही चाहते हैं कि हम भौतिक जिम्मेदारियों का भी ध्यान रखें
यह एक बहुत ही विरोधाभासी कथन है, जब हम अपनी भौतिक जिम्मेदारियों में व्यस्त हैं, तो हम कृष्ण को समझने में अपनी बुद्धि को कैसे लगा सकते हैं
जो हमेशा भक्ति में लगा रहता है, क्या आप बता सकते हैं कि शुरू से उसकी स्थिति क्या है?
भौतिक
भ्रामक
आरामदायक
दिव्य
एक भक्त एक भौतिक व्यक्ति से कैसे भिन्न होता है यदि वे दोनों एक ही प्रकार के भौतिक उत्तरदायित्वों में लगे हों?
अंतर मानसिकता का है, एक कृष्ण की सेवा के रूप में भौतिक जिम्मेदारी में लगा हुआ है और एक कर्ता के रूप में लगा हुआ है
यह एक अप्रासंगिक प्रश्न है, कोई अंतर नहीं है
अपनी अपनी सोच का फ़र्क है, और कुछ नहीं
मैं इस पर टिप्पणी नहीं कर सकता
‘’ जब भक्त हरे कृष्ण कीर्तन करता है, तो कृष्ण तथा उनकी अन्तरंगाशक्ति भक्त की जिह्वा पर नाचते रहते हैं’’. इस कथन से आप क्या समझते हैं ?
जब हरे कृष्ण मंत्र को गीत के रूप में गाया जाता है तो कृष्ण प्रसन्न हो जाते हैं और नृत्य करना चाहते हैं
यह कथन गलत है
जुबान पर नृत्य व्यावहारिक नहीं लगता। हमारी जुबान पर सर्वोच्च भगवान कैसे नाच सकते हैं
भगवान् का पवित्र नाम तथा भगवान् अभिन्न हैं
अगली प्रक्रिया क्या है जो कृष्ण हमसे करने के लिए कह रहे हैं यदि हम कृष्ण में अपना मन केंद्रित करने और कृष्ण को समझने में अपनी बुद्धि का उपयोग करने में सक्षम नहीं हैं?
भक्ति के विधि विधानों का पालन करो
सीधे परोपकार के काम में लग जाओ और धीरे-धीरे तुम मेरे पास आओगे
विधि विधानों का पालन मत करो, मेरे लिए कार्य करो
कृष्ण कोई ऐसा निर्देश नही दे रहे है
भक्ति के विधि विधान का पालन करने का क्या प्रयोजन है?
कोई उद्देश्य नहीं है लेकिन क्योंकि हम मनुष्य हैं, मुझे लगता है कि यह हमारी जिम्मेदारी है
हम प्रतिदिन बहुत सारे पाप करते हैं, इसलिए ये गतिविधियाँ हमें शुद्ध करती हैं और पापों की प्रतिक्रियाओं पर काबू पाने में मदद करती हैं
मुझे शांति मिलती है इसलिए मैं पालन करता हूं, यही पूरा उद्देश्य है
कृष्ण-आसक्ति अवस्था तक पहुंच पाये
आप क्या समझते हैं जब कृष्ण कहते हैं कि इंद्रियों का शुद्धिकरण आवश्यक है?
मैं इससे कोई मतलब नहीं निकाल सकता
भौतिकवाद से दुषित होने के कारण इन्द्रियाँ इन्द्रियतृप्ति में लगी रहती हैं, हमें भक्ति की प्रक्रिया द्वारा इन्द्रियों को शुद्ध करने की आवश्यकता है ताकि वे कृष्ण की सेवा में लग सकें
शुद्धिकरण की आवश्यकता क्यों है, मेरा अपनी इंद्रियों पर पूर्ण नियंत्रण है। मैं जहां चाहूं उन्हें लगा सकता हूं
मुझे ऐसा कोई बयान नहीं मिलता। हम में से कोई भी गीता को समझने में सक्षम नहीं है
संसार मैं ईश्र्वरप्रेम सभी जीवो के हृदय मैं ______ अवस्था मैं हैं?
समान
सुप्त
सुरक्षित
सक्षम
हम अपने आप को भक्ति की प्रक्रिया में क्यों लगाते हैं?
पुण्य अर्जित करने के लिए
भगवतप्रेम हेतु
आने वाला समय एवं अगला जीवन सुरक्षित करने के लिए
शांति पाने के लिए क्योंकि संसार में कलेश ही कलेश है
जो भगवान् कृष्ण की भक्ति में रत रहता है, उसका परमेश्र्वर के साथ ____________ सम्बन्ध होता है?
सकारात्मक
प्रत्यक्ष
राजसिक
ढीला
भक्ति योग का पालन गुरु के निरदेशानुसर करने का आदेश हमें गीता में कहीं मिलता है?
नहीं, इसके लिए और अधिक शोध की आवश्यकता है
हाँ, कृष्ण ने स्वयं कई श्लोकों में कहा है कि भक्ति का अभ्यास किसी प्रामाणिक आध्यात्मिक गुरु के मार्गदर्शन में किया जाना चाहिए
मैंने गीता पढ़ी है लेकिन प्रभुपाद ने इस कथन का कहीं भी संकेत या समर्थन नहीं किया है
गुरु की आवश्यकता है लेकिन एक जीवित गुरु ही एकमात्र माध्यम नहीं है, हमें किसी भी पूर्ववर्ती आचार्य द्वारा दीक्षा दी जा सकती है
जब कृष्ण कहते हैं मेरे लिए कर्म करने का प्रयास करो तो प्रभुपाद किन कार्यो को इंगित कर रहे हैं?
प्रचार के लिए धन इकट्ठा करने का प्रयास करें
मंदिर प्रबंधन में मदद
प्रसाद वितरण इत्यादि
उपरोक्त सभी
जब प्रभुपाद कहते हैं कि अपनी कमाई का कुछ हिस्सा प्रचार कार्य के लिए दान कर दो, तो वे क्या समझाने की कोशिश कर रहे हैं?
अपने कर्मों के फल और धन के मोह को त्यागने का प्रयास करें
प्रभुपाद चाहते हैं कि इस्कॉन विश्व प्रसिद्ध हो
हम बयान में हेरफेर क्यों कर रहे हैं जबकि वह सिर्फ एक अच्छी सलाह दे रहे हैं
वह हमें हमारे भूले हुए कर्तव्य की याद दिला रहे हैं
यदि चेतना का विकास नहीं हुआ है तो प्रभुपाद स्वयं को शुद्ध करने के अप्रत्यक्ष तरीकों का संकेत दे रहे हैं। इन दिशाओं का अंतिम लाभ क्या होगा?
व्यक्ति धीरे-धीरे भक्ति की प्रक्रिया तक पहुँच जाएगा और अंततः स्वयं को कृष्ण की सेवा में संलग्न कर लेगा
मैंने इस बारे में नहीं सोचा है
अप्रत्यक्ष तरीके भक्ति की तुलना में किसी व्यक्ति को बहुत तेजी से शुद्ध करेंगे
सेवा तो सेवा है, चाहे वह प्रभु की प्रत्यक्ष सेवा हो या शुद्धिकरण के अप्रत्यक्ष तरीके। इसमें कोई फर्क नही है
प्रभुपाद ने इस पुस्तक का शीर्षक गीता यथारूप क्यों रखा है?
क्योंकि उन्होंने कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए संदेश में हेरफेर या परिवर्तन नहीं किया है
प्रभुपाद के पास गीता की ओरिजिनल कॉपी थी और उन्होंने कॉपी को वैसे ही छाप दिया
सर्वोच्च निराकार है ,इसलिए सत्य को छिपाने के लिए प्रभुपाद ने इस शब्द का इस्तेमाल किया ताकि लोग भ्रम में रहें
उन्होंने टीका लिखी है इसलिए उनके पास अधिकार है, हम इस पर बहस क्यों करें
यदि हम कृष्ण के लिए कार्य या कर्म के फलो का परित्याग नहीं कर सकते तो कृष्णा हमें ____का अनुशीलन करने की सलाह देते हैं
ज्ञान
पवित्र स्थान की खोज
वैरागी बनने
भौतिक आनंद
भगवत गीता एक पाठक को आत्मसाक्षात्कार के लिए कौन सी प्रक्रिया स्वीकार करने के लिए प्रेरित कर रही है?
ध्यान योग, मन को परमात्मा पर केंद्रित करना
ज्ञान योग, भगवान के सर्वोच्च निराकार रूप का ज्ञान संचय करना
अपने कार्यों के परिणाम को त्याग कर, परोपकारी कार्यों में मन और शक्ति को लगाना
भक्ति योग, भगवान की सीधी शरण लेना और उनकी सेवा करना
"जब भी कोई भक्त मुसीबत में पड़ता है , तो वह सोचता है की भगवान की मेरे उपर कृपा ही है | मुझे विगत दुष्कर्मो के अनुसार इससे अधिक कष्ट भोगना चाहिए था | यह तो भगवद कृपा है की मुझे मिलने वाला पूरा दंड नही मिल रहा है "यह कथन किस ग्रन्थ का है
ईशोपनिषद
श्रीमद्भागवतम्
भक्ति रसामृत सिंधु
चैतन्य चरितामृत
श्लोक 12.13-14 . के अनुसार भक्त के प्राथमिक गुण क्या हैं?
किसी से द्वेष नहीं करता और सभी जीवों का दयालु मित्र है
अपने को स्वामी नहीं मानता और मिथ्या अहंकार से मुक्त है
जो सुख-दुख में समभाव रहता है, सहिष्णु है, सदैव आत्मतुष्ट रहता है
उपरोक्त सभी
कलयुग में सरलता तथा सुखपूर्वक परम धाम पहुंचने की विधि क्या है?
ध्यान लगाना
गायत्री मंत्र का जाप करें
हरे कृष्ण महामंत्र का जाप करे
पवित्र स्थानों पर जाएँ और गंगा स्नान करें
यहाँ पर अपना नाम लिखे ?
यहाँ पर अपना फ़ोन नो. लिखे ?
यहाँ पर अपना पता लिखे ?
यहाँ पर अपनी उम्र लिखे ?